
आगरा कॉलेज में हिंदी विभाग द्वारा आयोजित एक दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी में गोस्वामी तुलसीदास और उपन्यास सम्राट प्रेमचंद की विरासत पर गहन विचार-विमर्श हुआ। इस संगोष्ठी में साहित्य और समाज के बीच के जटिल संबंधों को समझने का प्रयास किया गया। देश के विभिन्न हिस्सों से आए विद्वानों ने अपने विचारों से श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया।
तुलसीदास और प्रेमचंद का साहित्य सामाजिक यथार्थ का प्रामाणिक दस्तावेज़
आगरा कॉलेज के द्विशताब्दी समारोह के अंतर्गत हिंदी विभाग ने गोस्वामी तुलसीदास और मुंशी प्रेमचंद की जयंती के अवसर पर एक राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया। इस आयोजन में तीन प्रमुख विद्वानों ने अपने विचार रखे, जिन्होंने साहित्य और सामाजिक विज्ञानों के बीच के संबंधों की गहराई से पड़ताल की।
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली के प्रोफेसर मनींद्रनाथ ठाकुर ने कहा कि साहित्य समाज की गतिशीलता को दर्शाने का सबसे सशक्त माध्यम है। उन्होंने समाजविज्ञान की सीमाओं पर प्रकाश डालते हुए कहा कि यह समाज का केवल एक स्थिर चित्र प्रस्तुत करता है, जबकि साहित्य समाज और व्यक्ति के मन की आंतरिक यात्रा को उसकी पूरी गतिशीलता में दिखाता है। उन्होंने तुलसीदास और प्रेमचंद के लेखन को समाज को समझने के प्रामाणिक दस्तावेज़ बताया।

प्रो. ठाकुर ने इस बात पर भी जोर दिया कि आज के समय में साहित्य का महत्व ज्ञान के एक साधन के रूप में बढ़ रहा है। समाजशास्त्री भी इसे समाज को जानने का एक विश्वसनीय जरिया मानने लगे हैं। उन्होंने कहा कि जहां समाजशास्त्र सिर्फ बाहरी सच्चाइयों का अध्ययन कर पाता है, वहीं साहित्यकार उन सच्चाइयों से जूझते मनुष्य के आंतरिक अनुभवों को भी दर्शाता है। यही कारण है कि साहित्यकार भविष्य को देख पाते हैं, और आज जब दुनिया डिस्टोपिक संकट से गुजर रही है, तो साहित्यकार इसे बेहतर ढंग से समझ पा रहे हैं। उन्होंने कहा कि तुलसीदास का रामराज्य और प्रेमचंद का यूटोपिया आदर्शों की स्थापना करता है, जो आज भी प्रासंगिक है।
तुलसीदास का यूटोपिया और प्रेमचंद का यथार्थवाद: आज भी प्रासंगिक
प्रसिद्ध पत्रिका ‘आलोचना’ के संपादक और दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर आशुतोष कुमार ने कहा कि तुलसीदास और प्रेमचंद दोनों अपने समय के डिस्टोपिया की उपज थे। तुलसीदास ने इस चुनौती का सामना रामराज्य के आदर्श के साथ किया, जबकि प्रेमचंद ने अपने शुरुआती लेखन में यूटोपिया से शुरुआत कर धीरे-धीरे यथार्थ की ओर रुख किया।

प्रो. कुमार ने कहा कि प्रेमचंद साहित्य को राजनीति से आगे चलने वाली मशाल मानते थे। उनके उपन्यास, जैसे ‘प्रेमाश्रम’, ‘रंगभूमि’ और ‘गोदान’, कॉर्पोरेट घरानों द्वारा किसानों के शोषण और उनकी ज़मीनों की लूट को विस्तार से दर्शाते हैं। उन्होंने कहा कि आज के किसान आंदोलनों को प्रेमचंद के उपन्यासों के माध्यम से बेहतर ढंग से समझा जा सकता है, जो उनकी आज भी प्रासंगिकता को सिद्ध करता है।
स्त्री की इच्छा और एकल परिवार का महत्व
कलकत्ता विश्वविद्यालय के पूर्व विभागाध्यक्ष प्रोफेसर जगदीश्वर चतुर्वेदी ने कहा कि समाजशास्त्री साहित्य की गहराई को कभी नहीं समझ सकते, क्योंकि उनके लिए साहित्य केवल एक आंकड़ा होता है, जबकि साहित्य मनुष्य की अनुभूति को चित्रित करता है। उन्होंने तुलसीदास और प्रेमचंद दोनों के साहित्य में स्त्री की अनुभूति के केंद्रीय महत्व को रेखांकित किया।
प्रो. चतुर्वेदी ने कहा कि दोनों ही लेखकों ने इस बात पर जोर दिया कि स्त्री की इच्छा को दबाया नहीं जा सकता। दोनों की रचनाओं में परिवार केंद्रीय विषय रहा है, और वे एकल परिवार के महत्व को उजागर करने के कारण कालजयी माने जाते हैं। उन्होंने प्रेमचंद की कहानी ‘कफन’ का उदाहरण देते हुए कहा कि कहानी में बुढ़िया की अनसुनी आवाज़ को सुनना ही आज के आलोचक और समाजशास्त्री का सबसे बड़ा दायित्व है।
संगोष्ठी का सफल संचालन संयोजक प्रो. उमाकांत चौबे ने किया और कार्यक्रम की अध्यक्षता हिंदी विभाग की अध्यक्ष प्रो. सुनीता रानी घोष ने की। इस आयोजन में आगरा कॉलेज के उप प्राचार्य डॉ. पी. बी. झा, प्रो. वी. के. सिंह, प्रो. संध्या यादव, प्रो. सुनीता द्विवेदी सहित कई शिक्षक, शोधार्थी और विद्यार्थी मौजूद रहे।